Monday, April 6, 2020

'अदृश्य सी... उर्मिला'


 
 अभी-अभी१४ वर्षों बाद, शय्या से उठी हूँ,
देखो लक्ष्मण, तुम्हारे स्वागत में जूटी हूँ!
आज वन से लौटे हो अयोध्या में उत्सव है|
पर मन मेरा व्यथित, प्रश्नों का विप्लव है!

आज उठने के बाद, किसी को मैं दिखाई न दी,
'उर्मिला-निद्रा' के अंत पर, किसी ने बधाई न दी!
रक्षा राम-सीता की करने, तुम अखंड सचेत रहे,
एक वनवास मेरा भी था, भले हम न समेत रहे!

मैं पत्नि तुम्हारी, लक्ष्मण! तुम्हें... स्मरण तो है न?
तुम्हारी आज्ञा का किया मैंने योग्य अनुसरण तो है न!
निद्रा-हीनता का वरदान तुम्हारा, बन गया मेरा श्राप!
१४ वर्षों तक सोते रहना- क्या था मेरा पाप?

मुझे दी गयी बस निर्बाध निद्रा, क्या मेरे गुण व्यर्थ नहीं?
क्या कर्त्तव्य अपना निभाने में, यह जनक-पुत्री समर्थ नहीं?
क्या राम-सीता को देख तुम्हें न प्रतीत हुआ मेरा अभाव?
मैं तो हूँ सीता की अनुजा, फिर क्यों हुआ यह भेद-भाव?

मिला एक को वनवास, एक को शयन कक्ष ख़ास!
मेरी इच्छाओं को समझने का, न किया किसी ने प्रयास!
मर्यादा-पुरुषोत्तम राम ने भी विचार मेरे नहीं जाने,
सीता हो कर मेरी बहन भी, न आयी तुम्हें समझाने!

क्या भ्राता की रक्षा के परे, तुम्हारा कोई धर्म नहीं?
नव-विवाहिता को छोड़ गये! क्या तुम में मर्म नहीं?
सीता पे ऊँगली उठाने वाले, करेंगे मेरी भी अवहेलना..!
जो तुम में ही नहीं सहानुभूति या मेरे प्रति संवेदना!

क्या है एक स्त्री का इस समाज में स्थान?
प्रश्न यह अनुत्तरितभले तुम बने भगवान!
जब राम-सीता-लक्ष्मण के गुण गायेंगे स्तुतिकार,
  
अवश्य याद करना- जो उर्मिला ने खोये अधिकार!

वरदान पूर्ति
'त्याग-मूर्ति'?
धुँधला अस्तित्व~
खोया व्यक्तित्व!
एक महान सी राम-लीला
एक अदृश्य सी... 'उर्मिला'!



Not many know that Laxman, the revered brother of Ram, had a wife named Urmila. Urmila was cursed to sleep for 14 years while Ram-Laxman and Sita were away in exile. It was for this compensation by Urmila that Laxman could stay sleepless and alert for 14 years and guard his brother. Was Urmila ever offered a choice? Did her existence, her opinions and her wish matter to her husband? In my poem, an evolved Urmila slams her husband's misogyny and describes why it wasn't a willful 'sacrifice' after all...

Wednesday, May 1, 2019

न्यायगंगा - Part II




Part II- गंगा, शांतनु से:

टोक कर मुझे, तुमने अपना वचन तोडा है, हस्तिनापुर नरेश!
कहते हो जिसे हत्यारी, आज जान लो उस गंगा का क्लेश-
मुझे पितृत्व समझाओ, पिता ब्रह्मा का ही यह श्राप है...
मनुष्य जीवन में कैद है नदी, क्या इतना घोर मेरा पाप है?

जो गंगा अपने स्पर्श सेमिटा सकती हर घाव-खरोच,
वही मृत्यु दे आयी हैअपने बालकों कोनिःसंकोच!
जीवन मेरा पीड़ा से भरादेखो चीख रहा मेरा अतीत-
निर्बाध प्रवाह को तरस रही हूँ, नहीं होता तुम्हें प्रतीत?

मैं स्वतंत्र, स्वच्छंद... यही मेरा स्वभाव है|
मैं जीवन-दायिनी, सर्वनाशिनी, ऐसा मेरा प्रभाव है!
रूप के परे तुम देख पाये, मैं भिन्न अन्यों की अपेक्षा,
नदी हूँ, बहती ही रहूँगी, जैसी है मेरी स्वेच्छा!

यह सात मृत 'वसुपुत्र'- थे भले ही श्रापित,
पर आँठवा 'देवव्रतसदैव रहेगा अपराजित!
अब मुझे जाना होगा... हम दोनों श्राप-मुक्त हैं,
एक कठिन जीवन जीने के लिएअब पुत्र हमारा नियुक्त है!

शांतनु, मुझे विदा दो-
राज्य और इस बालक का तुम पे उत्तरदायित्व है,
और गंगा? बेरोक प्रवाह ही गंगा का अस्तित्व है!
शांतनु, मुझे विदा दो,
मुझे विदा दो शांतनु...