देखी ना मैंने रंग-बहार, ना देखी कभी सूरज की धूप,
प्रकाश किरण से रहा वंचित, जीता हूँ मैं अंध-स्वरुप l
बस मन से ही देख लिया, जो सुना, जो महसूस किया,
आँखें उदास रहीं मुझ पे, पर दिल ने ना कभी अफ़सोस किया
एक उजाले की खोज है, दिल में चैन नहीं रहताl
सच में अँधेरा छाये तो भी 'डरने' का डर नहीं रहताl
नींद भी अँधेरा, जागूँ तो अँधेरा, रात-दिन बीतते जाते हैं,
अँधा हूँ- बेजान नहीं हूँ, मुझको भी सपने आते हैं!
फूल पहचानूँ खुशबू से, झरना ध्वनि झरझर से,
हर पल दिल एक ख्वाब बुनता, "काश...देख पाऊँ मैं कल से"!
हम एक बदनसीब हैं जो अँधेरे के घूँट पीते हैं,
और एक वो अज्ञानी कीड़े, जो अन्धकार में जीते हैंl
जो देखकर अनदेखा करते, सत्य के गर्भार्थ को,
श्राप का रूप जो देते हैं, 'सोच' के वरदान को!
अरे अंधी आँखें नहीं, अँधा तो मन होता है;
ऐसी दृष्टि किस काम की, सच जिससे भिन्न होता हैl
खुदा, मेरे अंधेपन से "घृणस्पद " यह अन्धकार हैl
ऐसे अज्ञात जगत पे मुझे धिक्कार है, धिक्कार है,
ऐसे अज्ञात जगत पे मुझे धिक्कार है, धिक्कार है!
:'(
ReplyDeleteराधा,
Deleteतुं सुंदर बरयता. विशय बरॆ हाताळटा.
म्हजी हिंदी तुजॆ इतली बरी आशिल्ली जाल्यार
तुज्या कवितांचॆर हिंदीत बरॊवंक म्हाका खॊशी जावपाची.
Thank you.
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