Part II- गंगा, शांतनु
से:
टोक कर मुझे, तुमने अपना वचन तोडा है, हस्तिनापुर नरेश!
कहते हो जिसे हत्यारी, आज जान लो उस गंगा का क्लेश-
मुझे पितृत्व न समझाओ, पिता ब्रह्मा का ही यह श्राप है...
मनुष्य जीवन में कैद है नदी, क्या इतना घोर मेरा पाप है?
जो गंगा अपने स्पर्श से, मिटा सकती हर घाव-खरोच,
वही मृत्यु दे आयी है, अपने बालकों को- निःसंकोच!
जीवन मेरा पीड़ा से भरा, देखो चीख रहा मेरा अतीत-
निर्बाध प्रवाह को तरस रही हूँ, नहीं होता तुम्हें प्रतीत?
मैं स्वतंत्र, स्वच्छंद... यही मेरा स्वभाव है|
मैं जीवन-दायिनी, सर्वनाशिनी, ऐसा मेरा प्रभाव है!
मैं जीवन-दायिनी, सर्वनाशिनी, ऐसा मेरा प्रभाव है!
रूप के परे तुम देख न पाये, मैं भिन्न अन्यों की अपेक्षा,
नदी हूँ, बहती ही रहूँगी, जैसी है मेरी स्वेच्छा!
यह सात मृत 'वसुपुत्र'- थे भले ही श्रापित,
पर आँठवा 'देवव्रत' सदैव रहेगा अपराजित!
अब मुझे जाना होगा... हम दोनों श्राप-मुक्त हैं,
एक कठिन जीवन जीने के लिए, अब पुत्र हमारा नियुक्त है!
शांतनु, मुझे विदा दो-
राज्य और इस बालक का तुम पे उत्तरदायित्व है,
और गंगा? बेरोक प्रवाह ही गंगा का अस्तित्व है!
शांतनु, मुझे विदा दो,
मुझे विदा दो शांतनु...