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Friday, January 18, 2019

~ राधा ~

'वियोग' मानो अब राधा का दूसरा नाम था,
उदासी उसकी कृष्ण के जाने का परिणाम था|
मुरली का मधुर स्वर कहाँ वह भूल पायी थी,
निर्जीव बने वृन्दावन सी राधा भी मुरझाई थी!
दिन अकेलेपन में बीते, अधूरेपन में रातें ढलीं,
मन प्यासा रहा भले ही आँखों से बरसातें बहीं!
कहने को वह पत्नि थी, बहन और बेटी थी,
पर कृष्ण की याद में, हर क्षण अकेली थी|
कभी कर्तव्य, कभी रीति, कैसे मिल पाते दोनों?
एक-दूसरे के बिन लेकिन, कैसे जी पाते दोनों?

बिनती कर उद्धव को, मथुरा ले जाने,
चल पडी राधा रानी, श्री को गले लगाने|
"कैसी है मथुरा नगरी, कौन लोग हैं वहाँ?"
असमंजस में उद्धव ने राधा को समझाते कहा-
"मथुरा नगरी कृष्ण की- विशाल और स्वर्णीय है,
रानियों में उसकी रुक्मिणी- सत्यभामा सर्वप्रिय हैं|"
"उद्धव, श्री के जीवन में तो सुख का आभाव नहीं,
उसमें मैं? नहीं... 'स्वार्थ' प्रेम का स्वभाव नहीं!
वह नहीं, पर उसकी यादें मेरे साथ हैं,
वह ख़ुश रहे यही मेरे लिए पर्याप्त है!"

"शब्द ये प्रेम भरे, राधे, किसी और ने भी कहे थे,
दुःख वियोग के, बिना बोले, किसी और ने भी सहे थे!
नि:स्वार्थता जितनी तुम में है, उतनी ही अनय में...
तुम्हारे विरह में जीया है, वह भी उसी समय में!
तुम 'कृष्ण' की छवि, तो अनय  'राधा' का स्वरूप,
बोलो हुए न तुम दोनों, राधा-कृष्ण के अनुरूप?"
कहता था श्याम सदैव, "राधे, तुम-मैं एक"...
अब समझ गयी थी वह, बात उसकी प्रत्येक|
एक राधा कृष्ण के मथुरा से लौटने की प्रतीक्षा करती...
एक राधा वृन्दावन से राधा के लौटने की राह तकती...

लौट गोकुल जा मिली, राधा- 'अपने आप' से,
मुक्त हो गए ...दोनों... प्रेम-वियोग के श्राप से!